हालिया शोध उस लंबे समय से चली आ रही धारणा को चुनौती देता है कि रानी हत्शेपसुत की मूर्तियों का विनाश उनके उत्तराधिकारी, थुटमोस III द्वारा बदला लेने का कार्य था। सबूत बताते हैं कि मूर्तियों को उनकी कथित अलौकिक शक्तियों को बेअसर करने के लिए अनुष्ठानिक रूप से 'निष्क्रिय' किया गया था।
हत्शेपसुत (लगभग 1479-1458 ईसा पूर्व में शासन किया), प्राचीन मिस्र की कुछ महिला फराओ में से एक थीं, जिनकी मृत्यु के बाद उनकी कई मूर्तियाँ तोड़ दी गईं। इससे यह धारणा बनी कि थुटमोस III ने दुश्मनी के कारण उनके विनाश का आदेश दिया था। यह कुछ वैसा ही है जैसे भारतीय इतिहास में शासकों ने अपने पूर्ववर्तियों की विरासत को मिटाने की कोशिश की।
पुरातत्वविद् जून यी वोंग के अध्ययन, जो *एंटीक्विटी* में प्रकाशित हुआ, इन कलाकृतियों की फिर से जांच करता है। वोंग ने देर अल-बहरी में 1920 के दशक की खुदाई से अभिलेखीय रिकॉर्ड का विश्लेषण किया, जहाँ हत्शेपसुत की मूर्तियों के कई टुकड़े खोजे गए थे।
मूर्तियों को जानबूझकर विशिष्ट बिंदुओं पर तोड़ा गया था, जैसे कि गर्दन, कमर और घुटने। यह प्रथा, जिसे 'अनुष्ठानिक निष्क्रियता' के रूप में जाना जाता है, प्राचीन मिस्र में मूर्तियों की शक्ति को बेअसर करने के लिए आम थी, क्योंकि माना जाता था कि वे जीवित संस्थाएं हैं। यह कुछ वैसा ही है जैसे भारत में बुरी नजर से बचाने के लिए नींबू-मिर्च लटकाना।
हालांकि थुटमोस III ने हत्शेपसुत की विरासत को मिटाने की कोशिश की, लेकिन उनकी मूर्तियों का विनाश शायद एक अनुष्ठानिक कार्य था। यह इस बात के अनुरूप है कि अन्य फराओ की मूर्तियों के साथ कैसा व्यवहार किया गया था, जो शाही मूर्तियों को निष्क्रिय करने के लिए एक मानकीकृत दृष्टिकोण का सुझाव देता है।
वोंग के निष्कर्ष हत्शेपसुत की मृत्यु के बाद की घटनाओं की अधिक सूक्ष्म समझ प्रदान करते हैं, जो प्राचीन मिस्र में अनुष्ठानिक प्रथाओं और राजनीतिक प्रेरणाओं के बीच अंतःक्रिया को उजागर करते हैं। यह हमें प्राचीन इतिहास की जटिलताओं को समझने में मदद करता है, जैसे कि भारत में विभिन्न साम्राज्यों के बीच संबंध।