यूक्रेन-रूस शांति वार्ता: सामाजिक-मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

द्वारा संपादित: Татьяна Гуринович

यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की ने रूस के साथ एक नई शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा है, जिसका उद्देश्य जून 2024 से रुकी हुई वार्ताओं को फिर से शुरू करना और एक स्थायी युद्धविराम की दिशा में काम करना है।

इस पहल का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भ महत्वपूर्ण है, क्योंकि युद्ध ने दोनों देशों के समाजों पर गहरा प्रभाव डाला है। युद्ध के कारण लोगों के व्यवहार, भावनाओं और सामाजिक ताने-बाने में कई बदलाव आए हैं। लाखों लोग विस्थापित हुए हैं, और अनगिनत लोगों ने अपने प्रियजनों को खो दिया है। ऐसे में, शांति वार्ता की सफलता के लिए आवश्यक है कि इन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में रखा जाए।

शांति वार्ता के दौरान, दोनों पक्षों को एक-दूसरे की भावनाओं और चिंताओं को समझना होगा। उन्हें यह भी समझना होगा कि युद्ध ने उनके समाजों को कैसे बदल दिया है। उदाहरण के लिए, रूस में, युद्ध के कारण देशभक्ति की भावना बढ़ी है, लेकिन पश्चिमी देशों के प्रति अविश्वास भी बढ़ा है। यूक्रेन में, युद्ध ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया है, लेकिन रूस के प्रति कड़वाहट भी बढ़ी है।

इन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारकों को ध्यान में रखते हुए, शांति वार्ता को इस तरह से आयोजित किया जाना चाहिए जो विश्वास और समझ को बढ़ावा दे। दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात सुनने और एक-दूसरे की जरूरतों को समझने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि शांति प्रक्रिया में समय लगेगा और धैर्य की आवश्यकता होगी।

हाल ही में स्विट्जरलैंड में यूक्रेन के लिए हुए दो दिवसीय शांति शिखर सम्मेलन में 80 देशों ने रूस-यूक्रेन संघर्ष को समाप्त करने के लिए यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता को आधार बनाने का आह्वान किया। शिखर सम्मेलन में परमाणु सुरक्षा, वैश्विक खाद्य सुरक्षा और मानवीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया। भारत ने इस शिखर सम्मेलन के अंतिम संयुक्त दस्तावेज़ का समर्थन नहीं किया, लेकिन उसने इस बात पर बल दिया कि रूस और यूक्रेन दोनों द्वारा स्वीकार्य प्रस्ताव के माध्यम से ही इस क्षेत्र में शांति स्थापित की जा सकती है।

तुर्की के इस्तांबुल में 2022 के बाद शांति वार्ता का दूसरा दौर महज एक घंटे के भीतर खत्म हो गया, जहाँ दोनों देशों के प्रतिनिधियों के तेवर सख्त दिखे। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा है कि अगर कोई प्रगति नहीं होती है तो अमेरिका मध्यस्थता छोड़ सकता है।

शांति वार्ता की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखें और एक-दूसरे की भावनाओं को समझें। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि युद्ध ने उनके समाजों को कैसे बदल दिया है। केवल तभी वे एक स्थायी शांति समझौते पर पहुँच सकते हैं।

स्रोतों

  • Deutsche Welle

  • Cadena SER

  • Huffington Post

  • El País

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